उपासना एवं आरती >> सचित्र आरती संग्रह सचित्र आरती संग्रहगीताप्रेस
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प्रस्तुत है सचित्र आरती संग्रह....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आरती कैसे करनी चाहिये
आरती पूजन के अन्त में इष्टदेवता की प्रसन्नता के हेतु की जाती है। इसमें
इष्टदेव को दीपक दिखाने के साथ उनका स्तवन तथा गुणगान किया जाता है।
आरती में पहले मूलमंत्र (जिस देवता का जिस मन्त्र से पूजन किया गया हो, उस मन्त्र)- के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये और ढोल, नगारे, शंख, घड़ियाल आदि महावाद्यों तथा जय-जयकार के शब्द के साथ शुभ पात्र में घृत से या कपूर से विषम संख्या की बत्तियाँ जलाकर आरती करनी चाहिये।
साधारणत: पाँच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे ‘पंचप्रदीप’ भी कहते हैं। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है। कपूर से भी आरती होती है। पद्मपुराण में आया है।
‘कुंकुम, अगर, कपूर, घृत और चन्दन की सात या पाँच बत्तियाँ बनाकर अथवा रुई और घी की बत्तियाँ बनाकर शंख, घण्टा आदि बाजे बजाते हुए आरती करनी चाहिए।’
आरती के पाँच अंग होते हैं-
प्रथम दीप माला के द्वारा, दूसरे जल युक्त शंख से, तीसरे धुले हुए वस्त्र से, चौथे आम और पीपल आदि के पत्तों से और पाँचवें साष्टांग दण्डवत् से आरती करें।
आरती उतारते समय सर्वप्रथम भगवान् की प्रतिमा के चरणों में चार बार, नाभि देश में दो बार, मुखमण्डल पर एक बार और समस्त अंगों पर सात बार घुमाये।
आरती के दो भाव है जो क्रमश: ‘नीराजन’ और ‘आरती’ शब्द से व्यक्त हुए हैं। नीराजन (नि:शेषेण राजनं प्रकाशनम्)- का अर्थ है- विशेषरूप से, नि:शेष रूप से प्रकाशित करना। अनेक दीप बत्तियाँ जलाकर विग्रह के चारों ओर घुमाने का अभिप्राय यही है कि पूरा-का-पूरा विग्रह एड़ी से चोटी तक प्रकाशित हो उठे- चमक उठे, अंग-प्रत्यंग स्पष्ट रूप से उद्भासित हो जाय, जिसमें दर्शक या उपासक भलीभाँति देवता की रूप-छटा को निहार सके, हृदयंग्म कर सके।
दूसरा ‘आरती’ शब्द (जो संस्कृत) के आर्तिका प्राकृत रूप है और जिसका अर्थ है- अरिष्ट) विशेषत: माधुर्य उपासना से संबंधित है।
भगवान् के पूजन के अन्त में आरती की जाती है। पूजन में जो त्रुटि रह जाती है, आरती से उसकी पूर्ति हो जाती है। शास्त्रों में आरती का विशेष महत्त्व बताया गया है। पूजन में यदि मन्त्र और क्रिया में किसी प्रकार की कमी रह जाती है तो भी आरती कर लेने पर उसकी पूर्ति हो जाती है।
आरती करने का ही नहीं, आरती देखने का भी बहुत बड़ा पुण्य है। जो नित्य भगवान् की आरती देखता है और दोनों हाथों से आरती लेता है, वह अपनी करोड़ पीढ़ियों का उद्धार करता है तथा अन्त में भगवान् के परम पद को प्राप्त हो जाता है। अत: अत्यन्त ही श्रद्धा-भक्ति से अपने इष्टदेव की नित्य आरती करनी चाहिये।
आरती में पहले मूलमंत्र (जिस देवता का जिस मन्त्र से पूजन किया गया हो, उस मन्त्र)- के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये और ढोल, नगारे, शंख, घड़ियाल आदि महावाद्यों तथा जय-जयकार के शब्द के साथ शुभ पात्र में घृत से या कपूर से विषम संख्या की बत्तियाँ जलाकर आरती करनी चाहिये।
साधारणत: पाँच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे ‘पंचप्रदीप’ भी कहते हैं। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है। कपूर से भी आरती होती है। पद्मपुराण में आया है।
‘कुंकुम, अगर, कपूर, घृत और चन्दन की सात या पाँच बत्तियाँ बनाकर अथवा रुई और घी की बत्तियाँ बनाकर शंख, घण्टा आदि बाजे बजाते हुए आरती करनी चाहिए।’
आरती के पाँच अंग होते हैं-
प्रथम दीप माला के द्वारा, दूसरे जल युक्त शंख से, तीसरे धुले हुए वस्त्र से, चौथे आम और पीपल आदि के पत्तों से और पाँचवें साष्टांग दण्डवत् से आरती करें।
आरती उतारते समय सर्वप्रथम भगवान् की प्रतिमा के चरणों में चार बार, नाभि देश में दो बार, मुखमण्डल पर एक बार और समस्त अंगों पर सात बार घुमाये।
आरती के दो भाव है जो क्रमश: ‘नीराजन’ और ‘आरती’ शब्द से व्यक्त हुए हैं। नीराजन (नि:शेषेण राजनं प्रकाशनम्)- का अर्थ है- विशेषरूप से, नि:शेष रूप से प्रकाशित करना। अनेक दीप बत्तियाँ जलाकर विग्रह के चारों ओर घुमाने का अभिप्राय यही है कि पूरा-का-पूरा विग्रह एड़ी से चोटी तक प्रकाशित हो उठे- चमक उठे, अंग-प्रत्यंग स्पष्ट रूप से उद्भासित हो जाय, जिसमें दर्शक या उपासक भलीभाँति देवता की रूप-छटा को निहार सके, हृदयंग्म कर सके।
दूसरा ‘आरती’ शब्द (जो संस्कृत) के आर्तिका प्राकृत रूप है और जिसका अर्थ है- अरिष्ट) विशेषत: माधुर्य उपासना से संबंधित है।
भगवान् के पूजन के अन्त में आरती की जाती है। पूजन में जो त्रुटि रह जाती है, आरती से उसकी पूर्ति हो जाती है। शास्त्रों में आरती का विशेष महत्त्व बताया गया है। पूजन में यदि मन्त्र और क्रिया में किसी प्रकार की कमी रह जाती है तो भी आरती कर लेने पर उसकी पूर्ति हो जाती है।
आरती करने का ही नहीं, आरती देखने का भी बहुत बड़ा पुण्य है। जो नित्य भगवान् की आरती देखता है और दोनों हाथों से आरती लेता है, वह अपनी करोड़ पीढ़ियों का उद्धार करता है तथा अन्त में भगवान् के परम पद को प्राप्त हो जाता है। अत: अत्यन्त ही श्रद्धा-भक्ति से अपने इष्टदेव की नित्य आरती करनी चाहिये।
श्री सरस्वती-वन्दना
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतापद्मासना।
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा।।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतापद्मासना।
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा।।
माँ सरस्वती की आरती
जय सरस्वती माता, मैया जय सरस्वती माता।
सद्गुण, वैभवशालिनि, त्रिभुवन विख्याता ।।जय.।।
चन्द्रवदनि, पद्मासिनि द्युति मंगलकारी।
सोहे हंस-सवारी, अतुल तेजधारी।। जय.।।
बायें कर में वीणा, दूजे कर माला।
शीश मुकुट-मणि सोहे, गले मोतियन माला ।।जय.।।
देव शरण में आये, उनका उद्धार किया।
पैठि मंथरा दासी, असुर-संहार किया।।जय.।।
वेद-ज्ञान-प्रदायिनी, बुद्धि-प्रकाश करो।।
मोहज्ञान तिमिर का सत्वर नाश करो।।जय.।।
धूप-दीप-फल-मेवा-पूजा स्वीकार करो।
ज्ञान-चक्षु दे माता, सब गुण-ज्ञान भरो।।जय.।।
माँ सरस्वती की आरती, जो कोई जन गावे।
हितकारी, सुखकारी ज्ञान-भक्ति पावे।।जय.।।
सद्गुण, वैभवशालिनि, त्रिभुवन विख्याता ।।जय.।।
चन्द्रवदनि, पद्मासिनि द्युति मंगलकारी।
सोहे हंस-सवारी, अतुल तेजधारी।। जय.।।
बायें कर में वीणा, दूजे कर माला।
शीश मुकुट-मणि सोहे, गले मोतियन माला ।।जय.।।
देव शरण में आये, उनका उद्धार किया।
पैठि मंथरा दासी, असुर-संहार किया।।जय.।।
वेद-ज्ञान-प्रदायिनी, बुद्धि-प्रकाश करो।।
मोहज्ञान तिमिर का सत्वर नाश करो।।जय.।।
धूप-दीप-फल-मेवा-पूजा स्वीकार करो।
ज्ञान-चक्षु दे माता, सब गुण-ज्ञान भरो।।जय.।।
माँ सरस्वती की आरती, जो कोई जन गावे।
हितकारी, सुखकारी ज्ञान-भक्ति पावे।।जय.।।
सर्वरूप हरि-वन्दन
यं शैवा: समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो
बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटव: कर्तेति नैयायिका:।
अर्हन्नित्यथ जैनशासनरता: कर्मेति मीमांसका:
सोऽयं लो विदधातु वांछितफलं त्रैलोक्यनाथो हरि:।।
बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटव: कर्तेति नैयायिका:।
अर्हन्नित्यथ जैनशासनरता: कर्मेति मीमांसका:
सोऽयं लो विदधातु वांछितफलं त्रैलोक्यनाथो हरि:।।
भगवान् जगदीश्वर
ॐ जय जगदीश हरे, प्रभु ! जय जगदीश हरे।।
भक्त जनों के संकट छिन में दूर करे।।ॐ।।
जो ध्यावै फल पावै, दु:ख विनसै मनका।।प्रभु.।।
सुख-सम्पत्ति घर आवै, कष्ट मिटै तनका।।ॐ।।
मात-पिता तुम मेरे, शरण गेहूँ किसकी।।प्रभु।।
तुम बिन और न दूजा, आस करूँ जिसकी।।ॐ।।
तुम पूरन परमात्मा, तुम अन्तर्यामी।।प्रभु।।
पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सबके स्वामी।।ॐ।।
तुम करुणा के सागर तुम पालन-कर्ता।।प्रभु।।
मैं मूरख खल कामी, कृपा करो भर्ता।।ॐ।।
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपती।।प्रभु।।
किस बिधि मिलूँ दयामय ! मैं तुमको कुमती।।ॐ।।
दीनबन्धु दुखहर्ता तुम ठाकुर मेरे।।प्रभु।।
अपने हाथ उठाओ, द्वार पड़ा तेरे।।ॐ।।
विषय-विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।।प्रभु।।
श्रद्धा-भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा।।ॐ।।
भक्त जनों के संकट छिन में दूर करे।।ॐ।।
जो ध्यावै फल पावै, दु:ख विनसै मनका।।प्रभु.।।
सुख-सम्पत्ति घर आवै, कष्ट मिटै तनका।।ॐ।।
मात-पिता तुम मेरे, शरण गेहूँ किसकी।।प्रभु।।
तुम बिन और न दूजा, आस करूँ जिसकी।।ॐ।।
तुम पूरन परमात्मा, तुम अन्तर्यामी।।प्रभु।।
पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सबके स्वामी।।ॐ।।
तुम करुणा के सागर तुम पालन-कर्ता।।प्रभु।।
मैं मूरख खल कामी, कृपा करो भर्ता।।ॐ।।
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपती।।प्रभु।।
किस बिधि मिलूँ दयामय ! मैं तुमको कुमती।।ॐ।।
दीनबन्धु दुखहर्ता तुम ठाकुर मेरे।।प्रभु।।
अपने हाथ उठाओ, द्वार पड़ा तेरे।।ॐ।।
विषय-विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।।प्रभु।।
श्रद्धा-भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा।।ॐ।।
श्रीविष्णु-वन्दना
सशंखचक्रं सकिरीटकुण्डलं
सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम्।
सहारवक्ष:स्थलकौस्तुभश्रियं
नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम्।।
सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम्।
सहारवक्ष:स्थलकौस्तुभश्रियं
नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम्।।
भगवान् श्रीसत्यनारायणजी
जय लक्ष्मीरमणा, श्री लक्ष्मीरमणा।
सत्यनारायण स्वामी जन-पातक-हरणा।।जय.।।टेक।।
रत्नजटित सिंहासन अद्भुत छबि राजै।
नारद करत निराजन घंटा ध्वनि बाजै।।जय.।।
प्रकट भये कलि कारण, द्विज को दरस दियो।
बूढ़े ब्राह्मण बनकर कंचन-महल कियो।।जय.।।
दुर्बल भील कठारो, जिनपर कृपा करी।
चन्द्रचूड़ एक राजा, जिनकी बिपति हरी।।जय.।।
वैश्य मनोरथ पायो, श्रद्धा तज दीन्हीं।
सो फल भोग्यो प्रभुजी फिर अस्तुति कीन्हीं।।जय.।।
भाव-भक्ति के कारण छिन-छिन रूप धरयो।
श्रद्धा धारण कीनी, तिनको काज सरयो।।जय.।।
ग्वाल-बाल सँग राजा वन में भक्ति करी।
मनवांछित फल दीन्हों दीनदयालु हरी।।जय.।।
चढ़त प्रसाद सवायो कदलीफल, मेवा।
धूप-दीप-तुलसी से राजी सत्यदेवा।।जय.।।
(सत्य) नारायणजी की आरती जो कोई नर गावै।
तन-मन-सुख-सम्पत्ति मन-वांछित फल पावै।।जय.।।
सत्यनारायण स्वामी जन-पातक-हरणा।।जय.।।टेक।।
रत्नजटित सिंहासन अद्भुत छबि राजै।
नारद करत निराजन घंटा ध्वनि बाजै।।जय.।।
प्रकट भये कलि कारण, द्विज को दरस दियो।
बूढ़े ब्राह्मण बनकर कंचन-महल कियो।।जय.।।
दुर्बल भील कठारो, जिनपर कृपा करी।
चन्द्रचूड़ एक राजा, जिनकी बिपति हरी।।जय.।।
वैश्य मनोरथ पायो, श्रद्धा तज दीन्हीं।
सो फल भोग्यो प्रभुजी फिर अस्तुति कीन्हीं।।जय.।।
भाव-भक्ति के कारण छिन-छिन रूप धरयो।
श्रद्धा धारण कीनी, तिनको काज सरयो।।जय.।।
ग्वाल-बाल सँग राजा वन में भक्ति करी।
मनवांछित फल दीन्हों दीनदयालु हरी।।जय.।।
चढ़त प्रसाद सवायो कदलीफल, मेवा।
धूप-दीप-तुलसी से राजी सत्यदेवा।।जय.।।
(सत्य) नारायणजी की आरती जो कोई नर गावै।
तन-मन-सुख-सम्पत्ति मन-वांछित फल पावै।।जय.।।
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